बाकी की उलझन
आदमी की अपनी सोच मुकम्मल पूरी नहीं होती,कुछ हिस्से बाकि ही रह जाते हैं,और तब उस बाकी को पूरा करने का समय भी पूरा हो चुका होता है,जीवन में अतिरिक्त कर पाने की संभावना भी बहुत कम होती है और हर जीवन में बाकी को पूरा करने की ख्वाइश बराबर होती है,आदमी का सब कुछ अपने वश में होता है सिवाय मन के,और मन का मायाजाल कई बार कई बार विभ्रम की स्थितियां बार बार प्रकट करता चला जाता है.मन में ख्वाइश कुछ और है और उसकी संभावना न के बराबर और संभानाओं के और दरवाजों में व्यस्तता इतनी की बाकि कैसे हासिल हो के विकल्पों पर विचार ही नहीं हो पाता,लेकिन कुछ पल ऐसे भी आ जातें हैं की जब मन में कुछ छोड़े हुए को भी याद करना पड़ता है वैसे तो ये सभी लोग कहतें हैं कि पीछे मुड़कर देखना गुनाह है लेकिन अपने जज्बातों को पूरा करने के लिये पीछे कि राह कभी कभी आगे कि सफलता के दरवाजे खोल देती है और इसी आस में कि शायद आज का दिन भी आने वाले दिनों में काम आएगा,अभी भी बहुत कुछ अनसुलझा हुआ है और बहुत कुछ बाकी है. अनसुलझे को सुलझाना है और बाकी को पूरा करना है.
अरुण कुमार त्रिपाठी
28 जुलाइ 2006
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