Tuesday, September 4, 2012

आज अगर तुम होती पास


आज अगर तुम होती पास
मन फिर होता यूँ न उदास 
हंस-हंस कर हर क्षण में 
नव जीवन का करती संचार!

तुम कहती मै सुनता-गुनता
आशाओं पर कर दीर्घ विचार
आज अगर तुम होती पास
मन फिर होता यूँ न उदास !


जीवन के केवल दिन हैं चार
संग तुम्हारे लेकर विश्वाश 
पंख लगा उड़ते आकाश 
सरोकार कर जन्म यथार्थ
आज अगर तुम होती पास
मन फिर होता यूँ न उदास !

तन से दूर भले ही हो
रहती हो हर पल मन के पास
मन संग संग मन के होकर
मेरे मन से अपनी करती बात
आज अगर तुम होती पास
मन फिर होता यूँ न उदास !!

रह-रहकर मन ही मन में
है अब तक स्थिर विश्वाश
रंग दिखाकर इस जीवन के
खुद ही आ जाओगी  पास
आज अगर तुम होती पास
मन फिर होता यूँ न उदास !!
        -अरुण कुमार त्रिपाठी 
              21-08-2005

Tuesday, August 21, 2012


बाकी की उलझन 
आदमी की अपनी सोच मुकम्मल पूरी नहीं होती,कुछ हिस्से बाकि ही रह जाते हैं,और तब उस बाकी को पूरा करने का समय भी पूरा हो चुका होता है,जीवन में अतिरिक्त कर पाने की संभावना भी बहुत कम होती है और हर जीवन में बाकी को पूरा करने की ख्वाइश बराबर होती है,आदमी का सब कुछ अपने वश में होता है सिवाय  मन के,और मन का मायाजाल कई बार कई बार विभ्रम की स्थितियां बार बार प्रकट करता चला जाता है.मन में ख्वाइश कुछ और है और उसकी संभावना न के बराबर और संभानाओं के और दरवाजों में व्यस्तता इतनी की बाकि कैसे  हासिल हो के विकल्पों पर विचार ही नहीं हो पाता,लेकिन कुछ पल ऐसे भी आ जातें हैं की जब मन में कुछ छोड़े हुए को भी याद करना पड़ता है वैसे तो ये सभी लोग कहतें हैं कि पीछे मुड़कर देखना गुनाह है लेकिन अपने जज्बातों को पूरा करने के लिये पीछे कि राह कभी कभी आगे कि सफलता के दरवाजे खोल देती है और इसी आस में कि शायद आज का दिन भी आने वाले दिनों में काम आएगा,अभी भी बहुत कुछ अनसुलझा हुआ है और बहुत कुछ बाकी है. अनसुलझे  को सुलझाना है और बाकी को पूरा करना है.

                                                                                                                                                                                                                                                 अरुण कुमार त्रिपाठी 
                                                                                                                                                                                                                                        28 जुलाइ 2006

Saturday, August 11, 2012

स्वप्न समपर्ण

तुम हो एक सुन्दर सपना,
हो नहीं सकता जो अपना,
यही अभिलाषा मन में  लिए, 
भटकती आत्मा अतृप्त मन !!

निज सर्वस्व समपर्ण को,
है आतुर मेरा  मन ,
जलती ज्वाला सी,
रह-रहकर अकुलाता मन!!

प्यासा मन प्रेम का तेरे,
हिमगिरी सा स्वरुप,
हो गई चिरकाल विरह,
अब आ जाओ कहता मन!!
युगों-युगों से खोया हूँ,
पाने की है आस जगी,
आस मेरी विश्वास बनेगी,
यही पुकारता मेरा मन!!

यही विचार अभी हैं मेरे,
स्वर्ण स्वप्न कोरे काजल जैसे,
शब्द यही हैं सुर यही हैं,
इन्द्रधनुष के रंग यही हैं,
सत्य यही है,हाल यही है,
व्याकुल है बिन तेरे मन
                                    -अरुण कुमार त्रिपाठी  

Monday, July 16, 2012

युग-बोध


उद्वगिन,
नशे में चूर यहाँ,
फिरते हैं मनु के रूप यहाँ,
पथिक,
किसने कह दिया तुम्हे ,
मिलते हैं मनु से रूप यहाँ,

थे मनु,
सतजुग की काल परीक्षा में,
स्वयं सहित दासी के
वन जीवन अंगीकार किया,
कर ताप,कठिन,कराल,अनगिनत साल में
''राम'' धरा पर ले आये,

हैं मनु के रूप यहाँ,
जिनके दुष्कर्मो से
पृथ्वी का बढ़ रहा निरंतर भार यहाँ,
आशातीत तपश्या का,
बलि सा होता बलिदान यहाँ !!

-(अरुण कुमार त्रिपाठी)

Monday, August 22, 2011


अन्ना हजारे की देशव्यापी क्रांति का असर दूर दराज के गाँव कस्बों में देखने को मिल रहा है उमरिया जिले में स्थित बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में परम्परा के अनुसार लगने वाले मेले में समय की पाबन्दी का विरोध मेले में पंहुंचने वालों ने कुछ इस तरह किया....

Wednesday, July 28, 2010