Friday, April 23, 2010

अति विद्वता का अनिन्दनीय अंत .......

इस बात पर सहजता से यकीन करना काफी कठिन लगता है की शशि थरूर से इस्तीफा ले लिया गया है । संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पद की उम्मीदवारी से अपने राजनयिक आभामंडल की शुरुआत करने वाले का इतनी जल्दी और इतना बुरा अंत होगा किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।


Thursday, April 8, 2010

सफ़र में जिंदगी









Popout
और सफ़र में जिंदगी कटती रही !



मुसाफिर हूँ यारो न घर है न ठिकाना ,
मुझे चलते जाना है बस चलते जाना ,
मशहूर गायक एवं अभिनेता किशोर कुमार की ये पंक्तिया मूलत: राजस्थानी लोहागादिया समाज को देखने के बाद अनायास ही जुबान पर चली आती है और इनकी जिंदगी के मायने स्थापित समाज व्यवस्था को मुहँ चिड़ाते नजर आते हैं इनकी न तो कोई जमीन है और न ही कोई आशियाना , अपने परम्परागत व्यवसाय को कलेजे से चिपकाए हुए बैलगाड़ियों में सफ़र करते हुए ये लोग राज और सरकार की वर्त्तमान नीतियों से पूरी तरह से अनजान हैं ,कुल्हाड़ी फावड़ा और लोहे के औजारों को बनाने और सुधारने के व्यवसाय से जुड़े ये लोग अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी रहे हैं जिस पर सरकारी तंत्र का कोई हस्तक्षेप नहीं है ये भी भारत के ही वासी हैं लेकिन हमारे देश में आम आदमी के कद को सजाने और सवांरने और जीवन स्तर सुधारने के लिए क्या क्या प्रयास किये जा हैं उससे ये पूरा समाज दूर है, बैलगाड़ियों में बंजारों की तरह गावं गावं बस्ती बस्ती पड़ाव बदलते इन लोगों को अपने संघर्ष में ही असल जिंदगी नजर आ रही है।
सबसे संवेदनशील पहलू ये है की जिंदगी के इस संघर्ष में इनका पूरा परिवार साथ में होता है और कंधे से कन्धा मिलाकर एक दूसरे का साथ देते नजर आते हैं इस समाज के बच्चे जन्म लेने के बाद बहुत ही कम समय के लिए अपनी माँ के आँचल के साथ रह पाते हैं और पैर के बल खड़े होना सीखने के साथ साथ हाथ से हथौड़े चलाने का काम भी सीख जातें हैं । २१वी सदी के मानुष ने अपनी सुविधाओं को बहुत इजाद कर लिया है ,जमाना तेजी से बदल चूका है मगर हमारे समाज में आज भी रोटी की आग अमानुष जिंदगी जीने को मजबूर कर रही है कहीं देहव्यापार हो रहा है तो कहीं बचपन भीख मांग रहा है । इस अत्याधुनिक समाज में कुछ ऐसी ही भ्रांतियां मौजूद हैं जिसे देखकर जिंदगी के मायने ही खोखले साबित होते दिखाई पड़ते हैं और उसी का एक उदहारण लोहागादिया समाज के लोग हैं। मूलत राजस्थानी वेश भूषा पहने ये लोग लोहे के औजार बनाने में पारंगत होतें हैं , बैलगाड़ियों में सफ़र करते करते ये किसी भी गाव में डेरा डालकर अपना व्यवसाय कुछ दिनों तक करतें हैं फिर आगे के सफ़र का रुख कर लेतें है नदी के बहाव की तरह एक सामान गति में पानी की तरह बहते जाना ही इनका जीवन है । आज हमारा भारतीय समाज कितना आगे जा चूका है इस बात से इनका कोई सरोकार नहीं है ,और उससे बड़ी बात की सरकार के पास अमीर से लेकर गरीब से गरीब तक की जानकारी अपने कागजों में लिखकर रखी जाती है मगर इनका कोई हिसाब सरकार के पास नहीं है । फक्कडपन की जिंदगी बसर करते इन लोगों की जिंदगी देखकर भयावहता से अनायास ही मन सिहरने लगता है और जब कुछ समझ में आता है तो बस वाही किशोरदा का ऊपर लिखा गीत ... मुसाफिर हूँ यारो ,न घर है न ठिकाना ,मुझे चलते जाना है , बस चलते जाना ।

Sunday, April 4, 2010

जिंदगी का सफ़र या सफ़र में जिंदगी







और सफ़र में जिंदगी कटती रही



मुसाफिर हूँ यारो, न घर है न ठिकाना ।



मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना ।



मशहूर गायक एवं अभिनेता किशोर कुमार की ये पंक्तिया लोह्गाडिया समाज को देखने के बाद अनायास ही जुबान पर चली आती हैं और इनकी जिंदगी के मायने स्थापित समाज व्यस्था को मुहँ चिड़ाते नजर आतें हैं इनकी न तो कोई जमीन है न कोई आशियाना । अपने परम्परागत व्यसाय को कलेजे से चिपकाये हुए बैलगाड़ियों में सफ़र करते हुए ये लोग वर्तमान भारतीय व्यवस्था और व्यवस्था के पैरोकारों के मुहँ पर तमाचा मारते नजर आ रहे हैं। कुल्हाड़ी,फावड़ा और लोहे के औजारों को सुधारने से लेकर बनाने तक में निपुण इन लोगों को २१वी सदी के भारत की उड़ानों से कोई सरोकार नहीं है, अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी रहे इन लोगों पर सरकारी तंत्र का कोई ध्यान नहीं है। मूलतः राजस्थान के रहने वाले लोहागाडिया समाज के ये लोग भारतमाता की ही संतान हैं जहाँ एक ओर गरीबी हटाने, आम आदमी का जीवनस्तर ऊपर उठाने के लिए सरकार के सालाना बजट में आधे से ज्यादा रूपया खर्च किया जा रहा है वहीँ इस तरह की संघर्षपूर्ण जिदगी जीने वालों पर सरकारी तंत्र का कोई ध्यान है ।
इन लोगों को न तो बैलगाड़ियों में सफ़र की जिंदगी बिताने का दुःख है न ही गावं-गावं , बस्ती-बस्ती घूमकर अपना धंधा करने की मजबूरी का , जहाँ इनके बच्चे पैदा होने के बाद कब हाथ में हथौड़ा लेकर अपने परम्परागत व्यवसाय से जुड़ जातें हैं पता नहीं चल पाता इनकी महिलाएं बराबर अपने परिवार के साथ कदम से कदम मिलाकर अपना काम पूरी निष्ठां और मेहनत के साथ अंजाम देती हैं और परिवार के लिए रोटी की व्यवस्था में भागीदारी निभाती हैं । बैलगाड़ियों में जिंदगी बसर करने वाले इस लोहागाडिया समाज के बच्चे अपनी मासूम अवस्था में अपना बचपन खेलकूद और शिक्षा में न बिताकर अपने पैत्रक व्यवसाय को सहर देने में बिता देते हैं ।
 (अरुण कुमार त्रिपाठी)

Saturday, April 3, 2010

TIGER'S KILL

बाघिन के हमले से हुई रंजना तिवारी की मौत
बांधवगढ़ नेशनल पार्क की सीमा से लगे कुचवाही ग्राम की १८ वर्षीय रंजना सुबह ५ बजे महुआ बीनने अपने घर के बाहर स्थित महुए के पेड़ के नीचे जाकर महुआ बीनने लगी वहीँ पहले से ही बाघिन एक गाय को किल करके उसको खा रही थी ,और रंजना रात के अँधेरे में उसे नहीं देख पाई ,बाघिन ने उससे खतरा महसूस करते हुए उस पर हमला कर दिया और उसे मौत के घाट उतार दिया, बाघिन के हमले से पूरे गाँव में हडकंप मच गया।