Thursday, April 8, 2010

सफ़र में जिंदगी









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और सफ़र में जिंदगी कटती रही !



मुसाफिर हूँ यारो न घर है न ठिकाना ,
मुझे चलते जाना है बस चलते जाना ,
मशहूर गायक एवं अभिनेता किशोर कुमार की ये पंक्तिया मूलत: राजस्थानी लोहागादिया समाज को देखने के बाद अनायास ही जुबान पर चली आती है और इनकी जिंदगी के मायने स्थापित समाज व्यवस्था को मुहँ चिड़ाते नजर आते हैं इनकी न तो कोई जमीन है और न ही कोई आशियाना , अपने परम्परागत व्यवसाय को कलेजे से चिपकाए हुए बैलगाड़ियों में सफ़र करते हुए ये लोग राज और सरकार की वर्त्तमान नीतियों से पूरी तरह से अनजान हैं ,कुल्हाड़ी फावड़ा और लोहे के औजारों को बनाने और सुधारने के व्यवसाय से जुड़े ये लोग अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी रहे हैं जिस पर सरकारी तंत्र का कोई हस्तक्षेप नहीं है ये भी भारत के ही वासी हैं लेकिन हमारे देश में आम आदमी के कद को सजाने और सवांरने और जीवन स्तर सुधारने के लिए क्या क्या प्रयास किये जा हैं उससे ये पूरा समाज दूर है, बैलगाड़ियों में बंजारों की तरह गावं गावं बस्ती बस्ती पड़ाव बदलते इन लोगों को अपने संघर्ष में ही असल जिंदगी नजर आ रही है।
सबसे संवेदनशील पहलू ये है की जिंदगी के इस संघर्ष में इनका पूरा परिवार साथ में होता है और कंधे से कन्धा मिलाकर एक दूसरे का साथ देते नजर आते हैं इस समाज के बच्चे जन्म लेने के बाद बहुत ही कम समय के लिए अपनी माँ के आँचल के साथ रह पाते हैं और पैर के बल खड़े होना सीखने के साथ साथ हाथ से हथौड़े चलाने का काम भी सीख जातें हैं । २१वी सदी के मानुष ने अपनी सुविधाओं को बहुत इजाद कर लिया है ,जमाना तेजी से बदल चूका है मगर हमारे समाज में आज भी रोटी की आग अमानुष जिंदगी जीने को मजबूर कर रही है कहीं देहव्यापार हो रहा है तो कहीं बचपन भीख मांग रहा है । इस अत्याधुनिक समाज में कुछ ऐसी ही भ्रांतियां मौजूद हैं जिसे देखकर जिंदगी के मायने ही खोखले साबित होते दिखाई पड़ते हैं और उसी का एक उदहारण लोहागादिया समाज के लोग हैं। मूलत राजस्थानी वेश भूषा पहने ये लोग लोहे के औजार बनाने में पारंगत होतें हैं , बैलगाड़ियों में सफ़र करते करते ये किसी भी गाव में डेरा डालकर अपना व्यवसाय कुछ दिनों तक करतें हैं फिर आगे के सफ़र का रुख कर लेतें है नदी के बहाव की तरह एक सामान गति में पानी की तरह बहते जाना ही इनका जीवन है । आज हमारा भारतीय समाज कितना आगे जा चूका है इस बात से इनका कोई सरोकार नहीं है ,और उससे बड़ी बात की सरकार के पास अमीर से लेकर गरीब से गरीब तक की जानकारी अपने कागजों में लिखकर रखी जाती है मगर इनका कोई हिसाब सरकार के पास नहीं है । फक्कडपन की जिंदगी बसर करते इन लोगों की जिंदगी देखकर भयावहता से अनायास ही मन सिहरने लगता है और जब कुछ समझ में आता है तो बस वाही किशोरदा का ऊपर लिखा गीत ... मुसाफिर हूँ यारो ,न घर है न ठिकाना ,मुझे चलते जाना है , बस चलते जाना ।

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