Sunday, April 4, 2010

जिंदगी का सफ़र या सफ़र में जिंदगी







और सफ़र में जिंदगी कटती रही



मुसाफिर हूँ यारो, न घर है न ठिकाना ।



मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना ।



मशहूर गायक एवं अभिनेता किशोर कुमार की ये पंक्तिया लोह्गाडिया समाज को देखने के बाद अनायास ही जुबान पर चली आती हैं और इनकी जिंदगी के मायने स्थापित समाज व्यस्था को मुहँ चिड़ाते नजर आतें हैं इनकी न तो कोई जमीन है न कोई आशियाना । अपने परम्परागत व्यसाय को कलेजे से चिपकाये हुए बैलगाड़ियों में सफ़र करते हुए ये लोग वर्तमान भारतीय व्यवस्था और व्यवस्था के पैरोकारों के मुहँ पर तमाचा मारते नजर आ रहे हैं। कुल्हाड़ी,फावड़ा और लोहे के औजारों को सुधारने से लेकर बनाने तक में निपुण इन लोगों को २१वी सदी के भारत की उड़ानों से कोई सरोकार नहीं है, अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी रहे इन लोगों पर सरकारी तंत्र का कोई ध्यान नहीं है। मूलतः राजस्थान के रहने वाले लोहागाडिया समाज के ये लोग भारतमाता की ही संतान हैं जहाँ एक ओर गरीबी हटाने, आम आदमी का जीवनस्तर ऊपर उठाने के लिए सरकार के सालाना बजट में आधे से ज्यादा रूपया खर्च किया जा रहा है वहीँ इस तरह की संघर्षपूर्ण जिदगी जीने वालों पर सरकारी तंत्र का कोई ध्यान है ।
इन लोगों को न तो बैलगाड़ियों में सफ़र की जिंदगी बिताने का दुःख है न ही गावं-गावं , बस्ती-बस्ती घूमकर अपना धंधा करने की मजबूरी का , जहाँ इनके बच्चे पैदा होने के बाद कब हाथ में हथौड़ा लेकर अपने परम्परागत व्यवसाय से जुड़ जातें हैं पता नहीं चल पाता इनकी महिलाएं बराबर अपने परिवार के साथ कदम से कदम मिलाकर अपना काम पूरी निष्ठां और मेहनत के साथ अंजाम देती हैं और परिवार के लिए रोटी की व्यवस्था में भागीदारी निभाती हैं । बैलगाड़ियों में जिंदगी बसर करने वाले इस लोहागाडिया समाज के बच्चे अपनी मासूम अवस्था में अपना बचपन खेलकूद और शिक्षा में न बिताकर अपने पैत्रक व्यवसाय को सहर देने में बिता देते हैं ।
 (अरुण कुमार त्रिपाठी)

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